Thursday, July 12, 2012

बेवजह आ गयी हो छत पर

बेवजह आ गयी हो छत पर
देख रही हो
दो कपोतों के प्रेमालाप
इस सत्य से बेखबर
समूचा अस्तित्व
साँस लेने लगा है तेरी पुतलियों में
भादो के घन थाह लेकर
रूक गयें हैं तेरी पलकों पर
कोपलें निकल आई हैं
बुड्ढे दरख्तों पर
चिड़ियों के कंठ
गीतों के आवेश से फटने को आतुर

अनहद के रंग-मंच पर
ये कौन सा किरदार तुम निभाती हो !

अभी पुकारेगी एक बूढी आवाज़
और सरपट उतर जाओगी सीढियों से

छोड़कर..
आकाश को निरा
बादलों को बेसहारा
अस्तित्व को अधूरा
ये नभ-चर भटक जायेंगे अपना पथ

पुनः शुरू होगी
मेरी अंतहीन तलाश
तुम फिर हो जाओगी अग्गेय
प्रेम के मानिंद

-अहर्निशसागर-

No comments:

Post a Comment