Monday, August 27, 2012

मछलियां











मैं हर अपराह्न
तालाब के तट पर बैठ
आटे की गोलियां खिलाता हूँ
मछलियों को

फेंकी गयी हर गोली पर
सैकड़ों मछलियां
झपट्टा मारती हैं एक साथ
और ये नियमित कर्म है हमारा

एक अपराह्न
मैं नहीं आ पाउँगा तट पर
कोई शिकारी काँटा फेंकेगा
अपराह्न के उसी वक्त
सैकड़ों मछलियां एक साथ
झपट पड़ेगी उस पर
  
-अहर्निशसागर-

11 comments:

  1. जीवन और समाप्ति का समय .... निर्धारित वक़्त में प्राप्य से अप्राप्य में परिणति

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  2. एक अपराह्न
    मैं नहीं आ पाउँगा तट पर
    कोई शिकारी काँटा फेंकेगा
    अपराह्न के उसी वक्त
    सैकड़ों मछलियां एक साथ
    झपट पड़ेगी उस पर
    ....क्या तुम शिकारी नहीं?....बहुत खूब अहर्निश...

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  3. roj dukane sajti hain ....kamaal ki bhid hoti h ....hasi khushi ka mahol hota hai ...par aj wahan visfot hua ....

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  4. आह!!

    अबोध मछलियाँ जब तक समझ पाएंगी कांटा है या आटे की गोली तब तक उनका शिकार हो चुका होगा

    मर्मस्पर्शी रचना !

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  5. बहुत गहरे भाव लिए ......जीवन के बहुत से पहलुओं पर सही साबित होता विचार ....

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  6. क्या पता सारी मछलियां कांता ही खींच ले जाएँ.....
    कविता से परे भी तो कुछ हो सकता है...
    :-)

    अनु

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  7. aah..dil ko jhakjhor dene waale bhaav.....aap bauhat accha likhte hain :)

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  8. Jeevan chalta rehta hei , kisi ke jaane aane se koi firk nhin padta, sach hei Aharnish....:-D

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