मैं हर अपराह्न
तालाब के तट पर बैठ
आटे की गोलियां खिलाता हूँ
मछलियों को
फेंकी गयी हर गोली पर
सैकड़ों मछलियां
झपट्टा मारती हैं एक साथ
और ये नियमित कर्म है हमारा
एक अपराह्न
मैं नहीं आ पाउँगा तट पर
कोई शिकारी काँटा फेंकेगा
अपराह्न के उसी वक्त
सैकड़ों मछलियां एक साथ
झपट पड़ेगी उस पर
-अहर्निशसागर-
नियति विजेता होगी उस दिन...
ReplyDeletebahut sunder
ReplyDeleteजीवन और समाप्ति का समय .... निर्धारित वक़्त में प्राप्य से अप्राप्य में परिणति
ReplyDeleteएक अपराह्न
ReplyDeleteमैं नहीं आ पाउँगा तट पर
कोई शिकारी काँटा फेंकेगा
अपराह्न के उसी वक्त
सैकड़ों मछलियां एक साथ
झपट पड़ेगी उस पर
....क्या तुम शिकारी नहीं?....बहुत खूब अहर्निश...
roj dukane sajti hain ....kamaal ki bhid hoti h ....hasi khushi ka mahol hota hai ...par aj wahan visfot hua ....
ReplyDeleteआह!!
ReplyDeleteअबोध मछलियाँ जब तक समझ पाएंगी कांटा है या आटे की गोली तब तक उनका शिकार हो चुका होगा
मर्मस्पर्शी रचना !
बहुत गहरे भाव लिए ......जीवन के बहुत से पहलुओं पर सही साबित होता विचार ....
ReplyDeleteक्या पता सारी मछलियां कांता ही खींच ले जाएँ.....
ReplyDeleteकविता से परे भी तो कुछ हो सकता है...
:-)
अनु
aah..dil ko jhakjhor dene waale bhaav.....aap bauhat accha likhte hain :)
ReplyDeleteJeevan chalta rehta hei , kisi ke jaane aane se koi firk nhin padta, sach hei Aharnish....:-D
ReplyDeleteBAHUT BADIYA
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