Wednesday, February 3, 2016

माँ और पिता




माँ, हर रंग के वस्त्र को
तुरंत सिल सकती थी
उसके पास हर रंग के धागे थे
एक-एक धागा
हम सबकी आत्मा के रंग का भी था।
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माँ, टूटे बटन टांक देती
और उधड़े कपडे रफू कर देती
प्रेम के गहरे क्षणों में
कई बार उसनें
पिता की आत्मा को भी टांका हैं
लेकिन
पिता कभी जान नहीं पाये
जानेंगे, जब उनकी आत्मा को
टाँकने के लिए माँ नहीं होगी
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पिता का कुर्ता कई जगह से उधड़ गया था
धागे निकल आये थे
माँ कहती - लाओ सिल देती हूँ
लेकिन पिता मना कर देते
पिता अपने बुढ़ापे में
ठीक वैसा ही दिखना चाहते थे
जैसी माँ की आत्मा थी।
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सालों से माँ, अपने कपडे
पिता के कपड़ों के साथ धोती रही हैं
पिता के कपड़ों पर
बहुत हल्का माँ के कपड़ों का रंग चढ़ गया हैं
बहुत ध्यान से
कभी उनको देखता हूँ
पिता, अब कुछ-कुछ माँ दिखते हैं।
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माँ, काम से फारिग होते ही
सिलाई मशीन पर बैठ जाती 
उसके पैर सूर्य की तरह अपनी धुरी पर घूमते 
माँ के पैरों का गुरुत्व हमारी गृहस्थी को बांधे रखता 
हम माँ के नजदीक नक्षत्रों की तरह रहते 
और पिता इस गृहस्थी का दूरस्थ हिस्सा थे
वे रोजगार के लिए देसावर जाते
और महीनों बाद लौटते
किसी धूमकेतु की तरह। 


जो हमारा पुल बनती हैं

















एक स्वप्न में पुल पार करता हूँ
दो कदम आगे चलता हूँ
पुल पीछे दो कदम ढह जाता हैं
पुल पार होते ही, पूरा नदी में ढह जाता हैं
एक उम्र में जब स्त्रियों को देखता हूँ
तो लगता हैं
स्त्रियां कभी बूढी नहीं होती
वे पुल बन जाती हैं
हम उन्हें पार करते हैं और वे समय की नदी में ढह जाती हैं
बच्चे बगीचों में झूलों पर झूलते हैं
सहसा कहीं से पिता की आवाज सुनाई पड़ती हैं
वे दौड़ कर पिता के पास चले जाते हैं
खाली झूला बगीचे के एकांत में झूलता रहता हैं
घर की बुजुर्ग स्त्री
घर के एक कोने में माला जपते हुए आगे-पीछे झूल रही हैं
कहीं से पिता की आवाज आई होगी
कुछ था जो दौड़ता हुआ पिता के पास चला गया
और उस स्त्री की देह संसार के बगीचे में झूलती हुई छूट गई
झूले भी हवा में बना पुल होते हैं
जो नीरवता के दो अज्ञात किनारों को छूते हैं
जब वे ठहर जाते हैं, वे ढह जाते हैं
आखिरी स्त्री जो हमारा पुल बनती हैं
पार करने की उकताहट से भर चूका मैं
उसे पार नहीं करूँगा
उसके साथ ढह जाऊंगा।