Tuesday, August 4, 2015

प्रेम रहा, लेकिन इतना निस्पंद











उपन्यास
एक लंबी कथा होती हैं प्रिय !
लेकिन यह एक वृक्ष की आत्मकथा थी
वहीँ खड़ा
वहीँ बढ़ा
वहीँ ठूंठ हुआ


सिर्फ दो ही मौसम थे
पतझड़, जिसमें बाहर की तरफ झरता
एक बसंत, जिसमें भीतर की तरफ झरता

इतना नीरस जीवन था
कि एक कविता तक की जगह नहीं थीं
प्रेम रहा, लेकिन इतना निस्पंद
कि स्मृतियों में टांगने के लिये
एक गर्म सांस तक नहीं हैं

इतना धीरे....
इतना धीरे करीब आना हुआ
कि हम अंत के बाद ही मिल सके ।

शुक्रिया के बदले शुक्रिया












शुक्रिया के बदले शुक्रिया
शुभकामना के बदले शुभकामना
प्रेम के बदले प्रेम
इससे निश्चित और निजी
मेरे पास कुछ नहीं


और जीवन कितना अनिश्चित !
अमरुद की सबसे कच्ची डाल पर भी
पक्षियों के घोसले हैं,
ऐसी जगहों पर भी घोसले हैं
जो अगले बसंत तक अपनी जगहें पर नहीं बचेगी

लौट आने की भी एक अनिश्चित मियाद हैं
जहाँ से मैंने विदा ली वो जगहें भी अनिश्चित
अचानक मियाद ख़त्म हो जाएं
हम उन जगहों पर लौट नहीं पाएंगे
जहाँ से हमने विदा ली थी

यात्रा के गंतव्य अनिश्चित हैं
लेकिन निश्चित हैं यात्रा
निश्चित हैं..
शुक्रिया के बदले शुक्रिया कहूँगा
प्रेम के बदले प्रेम दूंगा
लेकिन लौट आने का वचन न दूंगा
सादर
सविनय
नमस्कार करूँगा
चल दूंगा