Monday, February 10, 2014

बसंत















यह ऋतु बंद होते फाटकों
खिड़िकियों कि आवाज से भरी हुई हैं
शिशिर के इस आँगन में
एक बच्ची गड़लिये से चलना सिख रही हैं
कितना विस्मय हैं
पृथ्वी पर शिशिर और बसंत आता हैं
अनंत निर्वात में यह छोटा सा स्पंदन

बच्ची गड़लिये को धकेलती हैं
तो पहिये चियां-चियां कि आवाज करते है
यह आवाज छत्तों में शहद भरेगी
कबूतर फड़फड़ाते हुए बावड़ियों से बाहर आयेंगे
यह आवाज पार करेगी
तमाम बंद फाटकों और खिड़कियों को
आच्छादित होगी पूरी पृथ्वी इसी आवाज से

एक बार फिर
शिशिर के इस आँगन में बसंत आएगा
चियां-चियां करते हुए।


-अहर्निशसागर-

माँ के लिए














स्मृतियों में
माँ हमेशा खाली घड़ा लिए हुए
पंचायत भवन के नलके कि तरफ जाती हुई दिखाई देती हैं
माँ खाली घड़ा लिए हुए जीवनभर मीलों चली हैं
इस तरह उसने सूखी गृहस्थी को नम रखा हैं
उसके चलने कि कुल गिनती करूँ तो
सूर्य के चारो तरफ पृथ्वी कि कक्षा से अधिक दूरी बैठेगी

अगर माँ आगे-आगे चलने को तैयार हो
मैं पीछे-पीछे घड़ा लिए दूर-दिगंत तक जा सकता हूँ
सारे समंदरों को आँगन के हौज में खाली कर सकता हूँ
फिर भी मेरी जांघों में जो ख़म हैं
वह उस सामर्थ्य का आधा भी नही हैं
जिस मजबूती से माँ घड़े जितने वजनी गर्भ में मुझे लिए
पृथ्वी के खिंचाव के विरुद्ध पुरे नौ महीने तक संसार में खड़ी रही

कद-काठी से माँ कुछ बटकी थी
जब वह चिता पर लेटी, कुल नौ डग में ही
मैंने घड़ा लिए चिता कि परिक्रमा पूरी कर ली
माँ को मृत्यु के घर कि चौहद्दी तक छोड़ आया
लेकिन मृत्यु के घर भी माँ खाली कहाँ बैठी होगी
अज्ञात आयामों में खाली घड़ा लिए निकल गई होगी

देर-सबेर जीवन कि चौहद्दी को लाँघ कर
मैं भी मृत्यु के घर में प्रवेश करूँगा
वहाँ माँ तो शायद नही मिलेगी
लेकिन हो सकता हैं
जीवन जी चुकने के बाद लगी प्यास को
तर करने के लिए
पळींडे में रखा पानी से भरा एक घड़ा मिले।


-अहर्निशसागर